5 कविता- "उपासना पाण्डेय"

1
कल तक मोहब्बत का एहसास ना था
तुमसे मिलके जाना की क्या होती है मोहब्बत
रोज जीते थे हम मगर कुछ यादे थी कड़वी सी
लगता था मुझे कि मेरा वजूद कुछ नही
तुमने आकर मेरी ज़िंदगी मे
मुझे ज़िन्दगी जीना सीखा दिया
आंखों को बंद करके देखती हूँ
हर रोज मैं एक नया ख्वाब
बस तुम दूर ना जाना कभी
जानती हूं कि मीलो की दूरी है
मगर दिल से नज़दीकियों कभी
खत्म होगी नही
कैसे भूल जाऊँगी मैं
वो प्यार तुम्हारा
और मेरी परवाह करने का हक
आज तक मिला नहीं तुमसा
जो इतनी परवाह करता
सब मतलबी से लगे 
मैं शुक्रगुजार हूं उस खुदा की
मेरी ज़िंदगी मे तुम्हारी मौजूदगी यूँ
ही चाहिये।।

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2
नयी उमंग नयी तरंग
ये जीवन भी बदल रहा

कुछ सपने बुनती हुन

कभी आसमान मे बन के परिंदा

उड़ जाऊँ

कभी मेघ बनके बरस जाऊँ
हवा का झोखा बनके 
सब छू जाऊँ
मन की इन उलझन को
खुद से ही मै सुलझाऊँ
कभी बनके तितली मै उड़ जाऊँ
बनके मै गुलाब सबके
मन को भाऊँ !

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3
आ चले कही दूर जहाँ सिर्फ हम हो
जहाँ से देखूं मैं सारा आसमां
न कोई डर हो मन के कोने में
कही देख न ले कोई हमे इस बात
से डरते बहुत हो तुम कही
कोई नज़रे मिलाते देख न ले
तुम्हे छुप छुप कर देख तो
लेती हूं मैं मगर डरती हूँ कही
एक रोज भूल न जाना तुम
मुझको छुपके देखकर जब तुम मुस्कुराते हो
सारे जहाँ की खुशी मिल जाती है मुझे
और मुझे भी तुम अपना बना लो
दिल मे यही हसरत है मेरी
की सारी दुनिया भूल बैठी हूँ
बस अगर कुछ बाकी है तो बस
तुम्हारी मोहब्बत चाहिये
दुनिया भी तुम और जिंदगी भी तुम।।
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4
कैसी उलझन सी है मेरी ज़िंदगी मे 
     तुमको देखूं तो क्यों भूल जाती हूँ मै सब
     तुम्हारी आँखों में क्या गजब का जादू है
     कि जब भी देखती हूं तो बस उनमे ही खो जाती हूं
     तुम्हारे सिवा इन आँखों को कुछ भाता ही नही
      जितनी मोहब्बत हमे तुमसे है कभी हुई ही नही 
       किसी और से तुम ही हो जिसको हम कभी
        भूलते ही नही मेरे दिल मे जो ये तस्वीर है सिर्फ 
         तुम्हारी है इसको कोई और सूरत अच्छी नही 
         लगती, मेरी तकदीर हो तुम मेरी ज़िंदगी का 
         हिस्सा भी हो तुम, इस ज़िन्दगी में जो अगर
         तुम न मिले तो हम खो जायेगे, बस मुझे अपना
         बना लो, फिर कोई उलझन ही न रहे दिल को।।
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5

क्यों मुझे कैद किया घर की उस अंधेरी
    सी कोठरी में जहाँ सांस भी लेना मुश्किल है
     मेरा क्या कसूर था कि बेटी बनकर आयी हूँ
    रातो को बेटे घूमे आज़ाद बनकर फिर क्यों
    हर अंकुश बेटियां सहे क्यों जब वो भी जीना
    चाहती है वो भी खुले आसमान में महसूस करने दो
      खुद को जानना चाहती हैं क्या वजूद है बेटियों का
    क्यों हर रोज एक निर्भया बन दम तोड़ रही है
कसूर किसका है उन बेटो का जो अपनी माँ बाप के
लाड़ले है पैसो का गुरूर लिए घूमते है
कब रुकेगा ये सब पता नही मगर
क्यों लोग बेटियो को मार देते है कोख में
क्या कसूर है उस अजन्मी बेटी का
जिसने दुनिया देखी तक नही 
क्यों इज्जत के नाम पर बेटियो को मार रहे हैं
क्यों हर बार  दहेज के लालच में जलती है बेटियां
किस बात की सजा मिलती है  बार- बार
कोई पुरुष मित्र बन जाये तो चरित्र हीन हो गयी
बलात्कार हुआ  तो निर्भया बनकर जान गवां बैठती है
क्या दिया इस समाज ने बेटियो को 
सिर्फ जननी बना दिया 
उसको मगर पूजना छोड़ कर उसको
अपमान ही मिला जब भी खुद के लिए कुछ किया
क्या थमेगी ये यातनाये जो औरतों पर 
हर रोज हो रही है कब बदलेगा ये समाज
कब बदलेंगी सोच बंदिशे क्यों सहती है बेटियां।।

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    "उपासना पांडेय"
    हरदोई


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