सिख - सरदार देते हैं मानवता की मिशाल... जानिये इनके बारे में

आपने आज तक हिंदू, मुस्लिम और जैन धर्म व लोगों के बारे में पडा सुना होगा, लेकिन अब जानिये सिखों के बारे में
लेखिका- जयति जैन, रानीपुर झांसी उ,प्र.

दोस्तों, आप को पता ही होगा की सिख धर्म
की शुरुवात गुरु नानक साहब ने पंजाब में
पंद्रहवी सदी में किया था। इसका उद्देश
समाज समाज में समानता, भाई चारा प्रस्थापित करके, ब्राह्मणवाद
का कर्म काण्ड, उंच नीच भेदभाव मिटाना था। सिख
धर्म हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो लोग सिख
धर्म को हिन्दू धर्म का हिस्सा मानते है वो लोग मूर्ख है और वो
सभी ब्राह्मणवादी लोगों के झूठे प्रचार का
शिकार है।
सिख धर्म आज मजहबी
सिख, जाट सिख, खालसी सिख, अरोरा सिख,
खत्री सिख, सैनी सिख जैसे जाती में बटा हुआ है। ये बात अलग है की हमारे सिख भाई इस बात को नहीं मानते
लेकिन वो ये सच को भी छुपा नहीं सकते।
ना ही गुरु नानक साहब ने जाती मानने के
लिए कहा, ना ही किसी सिख धर्म गुरु ने
जाती व्यवस्था मानने को कहा, ना ही गुरु
ग्रन्थ साहब में ऐसा लिखा है, फिर भी सिख धर्म में
जाती व्यवस्था, उंच नीच क्यों है? क्यों
की ये ब्राह्मणवादी लोगों का षड़यंत्र है,
जिससे की हमारे सिख धर्म के लोग शिकार हुए है।
सिख धर्म की इस जातीयता और उंच
नीचता के भेद भाव से तंग आकर हमारे चमार लोगों को अलग “रविदासिया” धर्म बनाना पड़ा।
सिख धर्म ( सिखमत और सिखी भी
कहा जाता है; पंजाबी : ਸਿੱਖੀ) एक
एकेश्वरवादी धर्म है। इस धर्म के
अनुयायी को सिख कहा जाता है। सिखों का धार्मिक
ग्रन्थ श्री आदि ग्रंथ या ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब
है। आमतौर पर सिखों के 10 सतगुर माने जाते हैं, लेकिन सिखों
के धार्मिक ग्रंथ में 6 गुरुओं सहित 30 भगतों की
बानी है, जिन की सामान सिख्याओं को
सिख मार्ग पर चलने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता ह। सिखों
के धार्मिक स्थान को गुरुद्वारा कहते हैं।
1469 ईस्वी में पंजाब में जन्मे नानक देव ने
गुरमत को खोजा और गुरमत की सिख्याओं को देश
देशांतर में खुद जा जा कर फैलाया था। सिख उन्हें अपना पहला
गुरु मानते हैं। गुरमत का परचार बाकि 9 गुरुओं ने किया। 10वे
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ये परचार खालसा को सोंपा
और ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब की सिख्याओं पर
अम्ल करने का उपदेश दिया। संत कबीर, धना ,
साधना , रामानंद , परमानंद , नामदेव इतियादी, जिन
की बानी आदि ग्रंथ में दर्ज है, उन
भगतों को भी सिख सत्गुरुओं के सामान मानते हैं
और उन कि सिख्याओं पर अमल करने कि कोशिश करते हैं। 
सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-
ओंकार कहते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और
निरंकार है।


धर्म और देश की रक्षा में जीवन की आहुति देने
वाली महान सिख परंपरा का जन्म ऐसे समय में हुआ
था, जब भारत पर बर्बर इस्लामियों का कहर अपने
चरम पर था। उत्तर-पश्चिमी भारत इस अत्याचार से
सर्वाधिक पीड़ित था।
ऐसे समय गुरु नानक ने एक ओर मुस्लिम शासकों द्वारा
चलाई जा अत्याचार की आँधी के खिलाफ आवाज
बुंलद की तो दूसरी ओर इंसान-इंसान के बीच भेदभाव
करनेवाली सामाजिक व्यवस्था को जबरदस्त
चुनौती दी।
गुरु नानक देव के संदेशों से इस्लामी आतंक से त्रस्त
पंजाब और देश के अन्य भागों के हिंदुओं को बड़ी
राहत मिली। जिन हिंदुओं के मंदिर मुस्लिम
आतताइयों ने तोड़ डाले थे, उन्होनें सिखों के
गुरुद्वारों में अपने देवी-देवताओं को प्रतिष्ठापित
किया। जो मंदिर बच गए थे, उन्होंने श्रद्धा पूर्वक
आदिग्रंथ को अपने गर्भगृह में स्थापित किया।
सिख संप्रदाय के संरक्षण में वैसे हिंदू वापिस अपने
धर्म में लौटने लगे, जो तलवार के डर से इस्लाम कबूल
कर चुके थे। यह इस्लाम के प्रचार-प्रसार को बड़ा
धक्का था। इस्लामी शासकों के अत्याचार से हिंदू
अपनी पूजा-पद्धति विस्मृत कर चुके थे, यहां तक कि
उनके कोपभाजन से बचने के लिए रहन-सहन और
खानपान में भी सावधानी बरती जाती थी। गुरु
नानक देव
ने इस मजहबी अत्याचार पर पहली चोट की। उन्होंने
बिना किसी भय के ‘एकं सत्’ के वैदिक परंपरा को
आगे बढ़ाते हुए कहा कि न कोई हिंदू है, न
मुसलमान,‘‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर से सब जग उपजिया कौन भले कौन मंदे।’’
आज गुरूनानक देव के जन्म-स्थल ननकाना साहिब
पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रम में इस्लामी
बर्बरता से लोहा लेने वाले नानक जी और सिख गुरुओं
के बारे में अपमानजनक बातें पढ़ायी जाती हैं।
द्वितीय गुरु श्री अंगददेवजी ने गुरु मुखी लिपि
विकसित की और सुस्वास्थ्य के लिए अखाड़ों का
निर्माण किया। तृतीय गुरु अमरदासजी ने परदा तथा
सती प्रथा का विरोध किया। विधवाओं के
पुनर्विवाह के जरिए उनके सामाजिक पुनर्वास की
व्यवस्था की और धर्म-प्रचार के कार्य में स्त्रियों
की नियुक्तियां की। यह श्री अमरदासजी की देश
और समाज को सबसे बड़ी देन थी।
चतुर्थ गुरु श्री रामदासजी ने वर्तमान अमृतसर शहर
को बसाकर धर्म को सामाजिक निर्माण के साथ
जोड़ा।
सत्य की रक्षा के लिए क्रूर इस्लामी हुकूमत के
हाथों शहीदी प्राप्त करनेवाले पंचम पातशाह, श्री
गुरु अर्जन देवजी सिख धर्म के प्रथम शहीद हुए।
इन्होनें अमृतसर में हरिमंदिर साहिब (जो स्वर्णमंदिर
के नाम से जाना जाता है) का निर्माण करवाया।
हरिमंदिर के निर्माण की पहली ईंट इन्होंने एक
मुसलिम संत साँई मियाँ मीर से रखवाई और इस पवित्र
धार्मिक स्थल में चार द्वार रखे। ताकि ईश्वर के इस
घर में किसी भी धर्म, जाति अथवा समुदाय का
कोई शख्स किसी भी दिशा से आकर उसकी इबादत
कर सके। समाज के एकीकरण में गुरुदेव के ये कार्य एक
बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति थे।
गुरु अर्जुन देव ने मुसलमानों की धर्मान्धता पर खुलकर
चोट की। इसके लिए उन्हें जहांगीर के दरबार में तलब
किया गया और बिना किसी सुनवाई के मौत की
सजा दे दी गई। गुरु अर्जुनदेव द्वारा संकलित और
संपादित गुरु ग्रंथ साहिब इनकी मानव समाज को
अनमोल देन है, जिसमें सामाजिक सौहार्द की
अद्भुत छाप है। गुरुग्रंथ का संकलन अर्जुन देव ने शुरु
किया था और उसका समापन दसवें गुरु गोविंद सिंह
ने किया। उन्होंने आदेश दिया,
‘सब सिखन को हुकुम है, गुरु मान्यो ग्रंथ,’ तब से सिख
गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानते हैं।
गुरुग्रंथ साहिब संपूर्ण मानवजाति के लिए एक अमूल्य
आध्यात्मिक निधि है। इसमें केवल सिख गुरुओं की
वाणी का ही संकलन नहीं है। इसमें भारत के
विभिन्न
भागों, भाषाओं और जातियों में जन्मे संतों की
वाणी भी एकत्रित है। मराठी, पुरानी पंजाबी, बृज,
अवधी आदि अनेक बोलियों से सुशोभित गुरुग्रंथ
साहब ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की भावना
से ओत-प्रोत है, इसलिए इसे समस्त मानव जाति का
शाश्वत व सनातन अध्यात्म कोश कहा जा सकता है।
पंचम पातशाह तक सिख धर्म का स्वरूप भक्ति और
सेवा तक सीमित था लेकिन गुरु अर्जन देवजी की
शहीदी के बाद षष्ठम गुरु श्री हरिगोविन्द साहिब
(१६०६-१६४४) ने भक्ति के साथ शक्ति भी जोड़ दी
और सिखों के हाथ में तलवार थमाकर उन्हें
अत्याचारियों के खिलाफ लड़ने का बल प्रदान
किया। राजसी सत्ता व शक्ति के प्रतीक के रूप में
उन्होंने हरिमंदिर साहिब के ठीक सामने अकालतख्त
साहिब की स्थापना की। यहाँ वे एक शाहंशाह की
तरह विराजते और लोगों के कष्टों और विवादों का
निपटारा करते।
हरगोविंद सिंह ने मुगलिया आतंक के खिलाफ शस्त्र
उठाया और सिख पराक्रमियों की एक छोटी
टुकड़ी को सैन्य प्रशिक्षण दिया। हिंदुओं को जबरन
आतंक के दम पर इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य
किया जाता था। इस्लाम कबूल करने वालों को
सुल्तान की ओर से हर तरह का प्रोत्साहन मिलता
था। परिणामस्वरूप भारी संख्या में हिंदू, खासकर
कश्मीर घाटी के हिंदू व सिख इस्लाम कबूल कर चुके
थे।
गुरु हरगोविंद सिंह ने के आहवान पर बहुत से ऐसे लोग,
जो अपना मत छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर चुके थे,
वापस अपने धर्म में लौट आए।
सप्तम पातशाह श्री गुरु हरिराय और अष्टम पीर श्री
गुरु हरिकृष्ण साहिब से होती हुई गुरु-परंपरा नौवें
पातशाह श्री गुरु तेगबहादुर जी तक पहुँची।
उस समय हिंदुओं को इस्लाम कबूल कराने के लिए
औरंगजेब ने खूनी मुहिम छेड़ रखी थी। उनके समर्थन में
तेग बहादुर के खड़े होने के कारण ही औरंगजेब ने पहले
उन्हें ही इस्लाम में परिवर्तित करना चाहा। परन्तु
अपने धर्म का त्याग करने की बजाए गुरु तेग बहादुर ने
१६७५ में तिलक और जनेऊ (हिन्दुओं) की रक्षा के
लिए अपने तीन शिष्यों भाई मतिदास, सतीदास और
दयालदास के साथ दिल्ली के चाँदनी चौक में मुगलों
के हाथों अपने शीश कटाकर बलिदान दे दिया-
‘‘तिलक जूं राखा प्रभ ताका। कीनो बडो कलू महि
साका। साधन हेति इती जिनि करी। सीसु दीआ परु
सी न उचरी।’’
तब गोविंद सिंह की आयु मात्र नौ वर्ष ही थी।
अपने पिता के दुखद अंत का समाचार सुन उन्होंने
कहा, ‘‘अपना खून देकर उन्होंने अपने धर्म की
प्रतिष्ठा रखी।’’
गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरू बने। उन्होनें देश और धर्म के
रक्षार्थ सिखों का सैनिकीकरण किया। मुसलमानों
की बर्बरता से लोहा लेने के लिए उन्होंने पूरे देश का
दौरा कर हिन्दुओं को जागृत किया।
उन्होंने मां दुर्गा के सामने गौमाता की रक्षा के
लिए प्रतिज्ञा की थी-‘‘यदि देहु आज्ञा तुर्क गाहै
खपाऊं,
गऊ घात का दोष जग सिउ मिटाऊं।’’
उनके चारों पुत्र देश के लिए बलिदान हो गये। दो
पुत्रों को मुस्लिम शासकों के आदेश पर जिंदा
दीवारों में चिनवा दिया गया था और दो शहीद
हो गये। इस प्रकार धार्मिक आजादी और पहचान
की रक्षा के लिए गुरु गोविदसिंह जी की पूरी चार
पीढ़ियाँ मुगलों के हाथों कुर्बान हो गईं—
सबसे पहले परदादा गुरु अर्जनदेवजी, फिर पिता गुरु तेग
बहादुरजी, उनके बाद गुरु गोविंदसिंहजी के चार
साहिबजादे और अंततः गुरुदेव स्वयं। जाहिर है, पीढ़ी-
दर-पीढ़ी बलिदान का ऐसा अनुपम उदाहरण
इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है।
१६०८ में नांदेड़ में एक विश्वासघाती अफगान ने धोखे
से
उनकी हत्या कर दी।
आज ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकांश देश
जिहादी आतंक से संत्रस्त हैं, तब गुरु नानक देव सहित
सनातन संस्कृति और मानवता की रक्षा में शहीद हुए
सभी सिख गुरुओं का स्मरण हो आना स्वाभाविक
है।
इस देश की कालजयी सनातनी बहुलतावादी
संस्कृति की सलामती में सिखों का बहुत बड़ा
योगदान है। उन्होंने
विचारों की स्वतंत्रता की रक्षा एवं जबरन
धर्मांतरण के खिलाफ घोर संघर्ष किया।
सिख आज भी यदि तलवार उठाते हैं तो केवल देश के
लिए और अपने सर कटवा देते हैं मगर कभी भी देश का
सर नहीं कटने देते । सिख दुनिया में जहाँ कहीं भी
रहते हैं बड़ी ही शान्ति तथा अपने पड़ोसियों के
साथ मेल जोल के साथ रहते हैं, और वहाँ की सरकारें
उन्हें कभी तंग नहीं करती । सिख केवल 2% हैं फिर
भी कभी आजतक किसी सरकार के सामने
अल्पसंख्यक मान्यता या आरक्षण के लिए हाथ नहीं
फैलाया कि हमें सरकारी मदद में ये दो या वो दो,
भले ही दो रोटी कम खा लेते हैं मगर कभी भीख नहीं
माँगते।
ऐसा नहीं है कि सिखों के नेता नहीं होते, मगर आज
तक
कभी भी किसी सिख नेता के मुँह से ऐसी बात नहीं
सुनी कि जल्दी ही सिख हिंदुस्तान पर राज करेगा
या पन्द्रह मिनट के लिए पुलिस हटा लो फिर देखो
हम 100 करोड़ जनता को मार देंगे, या कभी भी
सिखों द्वारा किसी भी मजहब के देवी, देवताओं
को गाली देते नहीं सुना।
इनके गुरूद्वारों के गेट हर मजहब के लोगों के लिए
हमेशा खुले रहते हैं। आंकड़ों के मुताबिक देश में 60
हजार से भी अधिक गुरुद्वारे 24 घंटे करीब 60 लाख
लोगों को लंगर खिलाते हैं। वो भी किसी किसी
भेदभाव के और बिना किसी का जाति-धर्म बिना
पूछे। यहाँ तक कि हिन्दू तीर्थस्थानों और मुस्लिम
क्षेत्र के गुरूद्वारों में भी इनका लंगर और सेवाकार्य
चलता रहता है। कुछ दिनों पहले सहारनपुर दंगों में
जिस गुरूद्वारे को जलाया गया था वहाँ भी लंगर
चलते थे और लोगों को मुफ्त दवाईयाँ बाँटी जाती
थी।
सिखों में आपसी लगाव काफी है। न सिर्फ जश्न के
मौकों पर बल्कि तकलीफ में भी सदा एक दूसरे के
साथ रहते हैं। अपनी अरदास में भी ये लोग दूसरों के
लिए पहले 'सरबत दा भला' मांगते हैं और आखिर में
अपने लिए कुछ मांगते हैं।
जरूरत पड़ी तो 12 फिर बजेंगे!
अक्सर 12 बजे को लेकर सिखों का व्यंग्य किया
जाता है। 1737 से 1767 के बीच नादिरशाह और
अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरे मारकाट के बाद
सोना-चांदी और कीमती सामान के साथ-साथ सुंदर
लड़कियों और स्त्रियों को भी लूटकर साथ ले जाते
थे। सिखों ने उन लुटेरों से स्त्रियों को बचाने की
ठानी और संख्या में कम होने के कारण छोटे-छोटे दल
बना कर 'रात 12 बजे' हमले की योजना की। अपने
दल को हमले के लिए चौकन्ना करने के लिए सिखों ने
एक कोड बनाया था '12 बज गए'। सिखों के लिए यह
वाक्य आज भी वीरता एवं गर्व का प्रतीक है।
यही नहीं कांग्रेसियों ने इंदिरा गाँधी की हत्या के
बाद उनके अंगरक्षकों संत सिंह और बेअंत सिंह के नाम
संता-बंता के नाम पर पूरे सिख समुदाय का मजाक
उड़ाने की कुत्सित परम्परा शुरू की। परन्तु देश और धर्म
के रक्षक बलिदानी सिखों का उपहास करने वालों
को शर्म आनी चाहिए। सिख राष्ट्र के शुभचिंतक
और हमारे सच्चे भाई हैं।
जान को हथेली पर रखना और हर काम में अव्वल आने
के लिए जोर लगाना, ऐसी इमेज है सिखों की।
जाहिर है
तभी आर्मी से लेकर ड्राइवरी तक, कोई भी काम
जिसमें
ज्यादा रिस्क हो, उसमें सबसे आगे आपको लंबा-
चौड़ा गबरू जवान, मूछों को तांव देता दिखाई दे
जाएगा। पॉजिटिव सोच इनका 'एक्स फैक्टर' है।
किसी भी काम को छोटा न समझने और विरासत में
मिली मेहनत की आदत की बदौलत केवल देश के हर
प्रान्त में ही नहीं बल्कि दुनियाँ के लगभग हर देश में
ऊंचाइयों तक पहुंची है यह कौम।
थामा देश की रक्षा का जिम्मा
यह बहादुर कौम देश की सुरक्षा में हमेशा आगे रही।
पूरे भारत की आबादी का केवल 2% होने के बावजूद
भी देश की सेना में 10% योगदान इन्हीं का है।
मुगलों के जमाने से लेकर स्वतंत्रता संग्राम, विश्व
युद्धों से लेकर चीन और भारत-पाकिस्तान युद्धों में
सिखों की बहादुरी को आज भी हम नहीं भूले हैं।
पिछले दोनों विश्व युद्धों में उन्होंने फ़्रांस, इटली,
मलयेशिया, अफ्रीका,बर्मा आदि (सभी यूरोपीय,
देशों, मध्य पूर्व तथा दक्षिण पूर्व) देशों में अपनी
शूरवीरता के परचम लहराए थे।
आज भी उनकी बेमिसाल बहादुरी को चिरंजीवी
बनाने के लिए लगभग सभी देशों में उनकी याद में
स्मारक बनाये गये हैं।
इन युद्धों में भी एक लाख से उपर सिख सैनिकों ने
अपनी आहुतियाँ दी थीं । आज़ाद हिंद फौज में भी
उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस की कुल संख्या
के लगभग ६०% सिख सैनिक ही थे।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि फ्रांस समेत
यूरोप के कई देशों में सिखों की बहादुरी की ऐसी
अनेकों दास्तां स्कूली बच्चों को पढ़ाई जाती हैं।
'यूनेस्को' की ओर से छापी गई किताब 'स्टोरीज़
ऑफ ब्रेवरी' में ये सब फैक्ट्स आपको मिल जाएंगे।
धर्म और राष्ट्र के रक्षक सिख कौम को पूरे भारत
का सलाम । गर्व है हमें अपने इन भाईयों पर।
जो बोले सो निहाल..धर्म और देश की रक्षा में जीवन की आहुति देने
वाली महान सिख परंपरा का जन्म ऐसे समय में हुआ
था, जब भारत पर बर्बर इस्लामियों का कहर अपने
चरम पर था। उत्तर-पश्चिमी भारत इस अत्याचार से
सर्वाधिक पीड़ित था।
ऐसे समय गुरु नानक ने एक ओर मुस्लिम शासकों द्वारा
चलाई जा अत्याचार की आँधी के खिलाफ आवाज
बुंलद की तो दूसरी ओर इंसान-इंसान के बीच भेदभाव
करनेवाली सामाजिक व्यवस्था को जबरदस्त
चुनौती दी।
गुरु नानक देव के संदेशों से इस्लामी आतंक से त्रस्त
पंजाब और देश के अन्य भागों के हिंदुओं को बड़ी
राहत मिली। जिन हिंदुओं के मंदिर मुस्लिम
आतताइयों ने तोड़ डाले थे, उन्होनें सिखों के
गुरुद्वारों में अपने देवी-देवताओं को प्रतिष्ठापित
किया। जो मंदिर बच गए थे, उन्होंने श्रद्धा पूर्वक
आदिग्रंथ को अपने गर्भगृह में स्थापित किया।
सिख संप्रदाय के संरक्षण में वैसे हिंदू वापिस अपने
धर्म में लौटने लगे, जो तलवार के डर से इस्लाम कबूल
कर चुके थे। यह इस्लाम के प्रचार-प्रसार को बड़ा
धक्का था। इस्लामी शासकों के अत्याचार से हिंदू
अपनी पूजा-पद्धति विस्मृत कर चुके थे, यहां तक कि
उनके कोपभाजन से बचने के लिए रहन-सहन और
खानपान में भी सावधानी बरती जाती थी। गुरु
नानक देव
ने इस मजहबी अत्याचार पर पहली चोट की। उन्होंने
बिना किसी भय के ‘एकं सत्’ के वैदिक परंपरा को
आगे बढ़ाते हुए कहा कि न कोई हिंदू है, न
मुसलमान,‘‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर से सब जग उपजिया कौन भले कौन मंदे।’’

आज गुरूनानक देव के जन्म-स्थल ननकाना साहिब
पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रम में इस्लामी
बर्बरता से लोहा लेने वाले नानक जी और सिख गुरुओं
के बारे में अपमानजनक बातें पढ़ायी जाती हैं।
द्वितीय गुरु श्री अंगददेवजी ने गुरु मुखी लिपि
विकसित की और सुस्वास्थ्य के लिए अखाड़ों का
निर्माण किया। तृतीय गुरु अमरदासजी ने परदा तथा
सती प्रथा का विरोध किया। विधवाओं के
पुनर्विवाह के जरिए उनके सामाजिक पुनर्वास की
व्यवस्था की और धर्म-प्रचार के कार्य में स्त्रियों
की नियुक्तियां की। यह श्री अमरदासजी की देश
और समाज को सबसे बड़ी देन थी।
चतुर्थ गुरु श्री रामदासजी ने वर्तमान अमृतसर शहर
को बसाकर धर्म को सामाजिक निर्माण के साथ
जोड़ा।
सत्य की रक्षा के लिए क्रूर इस्लामी हुकूमत के
हाथों शहीदी प्राप्त करनेवाले पंचम पातशाह, श्री
गुरु अर्जन देवजी सिख धर्म के प्रथम शहीद हुए।
इन्होनें अमृतसर में हरिमंदिर साहिब (जो स्वर्णमंदिर
के नाम से जाना जाता है) का निर्माण करवाया।
हरिमंदिर के निर्माण की पहली ईंट इन्होंने एक
मुसलिम संत साँई मियाँ मीर से रखवाई और इस पवित्र
धार्मिक स्थल में चार द्वार रखे। ताकि ईश्वर के इस
घर में किसी भी धर्म, जाति अथवा समुदाय का
कोई शख्स किसी भी दिशा से आकर उसकी इबादत
कर सके। समाज के एकीकरण में गुरुदेव के ये कार्य एक
बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति थे।
गुरु अर्जुन देव ने मुसलमानों की धर्मान्धता पर खुलकर
चोट की। इसके लिए उन्हें जहांगीर के दरबार में तलब
किया गया और बिना किसी सुनवाई के मौत की
सजा दे दी गई। गुरु अर्जुनदेव द्वारा संकलित और
संपादित गुरु ग्रंथ साहिब इनकी मानव समाज को
अनमोल देन है, जिसमें सामाजिक सौहार्द की
अद्भुत छाप है। गुरुग्रंथ का संकलन अर्जुन देव ने शुरु
किया था और उसका समापन दसवें गुरु गोविंद सिंह
ने किया। उन्होंने आदेश दिया,
‘सब सिखन को हुकुम है, गुरु मान्यो ग्रंथ,’ तब से सिख
गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानते हैं।
गुरुग्रंथ साहिब संपूर्ण मानवजाति के लिए एक अमूल्य
आध्यात्मिक निधि है। इसमें केवल सिख गुरुओं की
वाणी का ही संकलन नहीं है। इसमें भारत के
विभिन्न
भागों, भाषाओं और जातियों में जन्मे संतों की
वाणी भी एकत्रित है। मराठी, पुरानी पंजाबी, बृज,
अवधी आदि अनेक बोलियों से सुशोभित गुरुग्रंथ
साहब ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की भावना
से ओत-प्रोत है, इसलिए इसे समस्त मानव जाति का
शाश्वत व सनातन अध्यात्म कोश कहा जा सकता है।
पंचम पातशाह तक सिख धर्म का स्वरूप भक्ति और
सेवा तक सीमित था लेकिन गुरु अर्जन देवजी की
शहीदी के बाद षष्ठम गुरु श्री हरिगोविन्द साहिब
(१६०६-१६४४) ने भक्ति के साथ शक्ति भी जोड़ दी
और सिखों के हाथ में तलवार थमाकर उन्हें
अत्याचारियों के खिलाफ लड़ने का बल प्रदान
किया। राजसी सत्ता व शक्ति के प्रतीक के रूप में
उन्होंने हरिमंदिर साहिब के ठीक सामने अकालतख्त
साहिब की स्थापना की। यहाँ वे एक शाहंशाह की
तरह विराजते और लोगों के कष्टों और विवादों का
निपटारा करते।
हरगोविंद सिंह ने मुगलिया आतंक के खिलाफ शस्त्र
उठाया और सिख पराक्रमियों की एक छोटी
टुकड़ी को सैन्य प्रशिक्षण दिया। हिंदुओं को जबरन
आतंक के दम पर इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य
किया जाता था। इस्लाम कबूल करने वालों को
सुल्तान की ओर से हर तरह का प्रोत्साहन मिलता
था। परिणामस्वरूप भारी संख्या में हिंदू, खासकर
कश्मीर घाटी के हिंदू व सिख इस्लाम कबूल कर चुके
थे।
गुरु हरगोविंद सिंह ने के आहवान पर बहुत से ऐसे लोग,
जो अपना मत छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर चुके थे,
वापस अपने धर्म में लौट आए।
सप्तम पातशाह श्री गुरु हरिराय और अष्टम पीर श्री
गुरु हरिकृष्ण साहिब से होती हुई गुरु-परंपरा नौवें
पातशाह श्री गुरु तेगबहादुर जी तक पहुँची।
उस समय हिंदुओं को इस्लाम कबूल कराने के लिए
औरंगजेब ने खूनी मुहिम छेड़ रखी थी। उनके समर्थन में
तेग बहादुर के खड़े होने के कारण ही औरंगजेब ने पहले
उन्हें ही इस्लाम में परिवर्तित करना चाहा। परन्तु
अपने धर्म का त्याग करने की बजाए गुरु तेग बहादुर ने
१६७५ में तिलक और जनेऊ (हिन्दुओं) की रक्षा के
लिए अपने तीन शिष्यों भाई मतिदास, सतीदास और
दयालदास के साथ दिल्ली के चाँदनी चौक में मुगलों
के हाथों अपने शीश कटाकर बलिदान दे दिया-
‘‘तिलक जूं राखा प्रभ ताका। कीनो बडो कलू महि
साका। साधन हेति इती जिनि करी। सीसु दीआ परु
सी न उचरी।’’
तब गोविंद सिंह की आयु मात्र नौ वर्ष ही थी।
अपने पिता के दुखद अंत का समाचार सुन उन्होंने
कहा, ‘‘अपना खून देकर उन्होंने अपने धर्म की
प्रतिष्ठा रखी।’’
गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरू बने। उन्होनें देश और धर्म के
रक्षार्थ सिखों का सैनिकीकरण किया। मुसलमानों
की बर्बरता से लोहा लेने के लिए उन्होंने पूरे देश का
दौरा कर हिन्दुओं को जागृत किया।
उन्होंने मां दुर्गा के सामने गौमाता की रक्षा के
लिए प्रतिज्ञा की थी-‘‘यदि देहु आज्ञा तुर्क गाहै
खपाऊं,
गऊ घात का दोष जग सिउ मिटाऊं।’’
उनके चारों पुत्र देश के लिए बलिदान हो गये। दो
पुत्रों को मुस्लिम शासकों के आदेश पर जिंदा
दीवारों में चिनवा दिया गया था और दो शहीद
हो गये। इस प्रकार धार्मिक आजादी और पहचान
की रक्षा के लिए गुरु गोविदसिंह जी की पूरी चार
पीढ़ियाँ मुगलों के हाथों कुर्बान हो गईं—
सबसे पहले परदादा गुरु अर्जनदेवजी, फिर पिता गुरु तेग
बहादुरजी, उनके बाद गुरु गोविंदसिंहजी के चार
साहिबजादे और अंततः गुरुदेव स्वयं। जाहिर है, पीढ़ी-
दर-पीढ़ी बलिदान का ऐसा अनुपम उदाहरण
इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है।
१६०८ में नांदेड़ में एक विश्वासघाती अफगान ने धोखे
से
उनकी हत्या कर दी।
आज ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकांश देश
जिहादी आतंक से संत्रस्त हैं, तब गुरु नानक देव सहित
सनातन संस्कृति और मानवता की रक्षा में शहीद हुए
सभी सिख गुरुओं का स्मरण हो आना स्वाभाविक
है।
इस देश की कालजयी सनातनी बहुलतावादी
संस्कृति की सलामती में सिखों का बहुत बड़ा
योगदान है। उन्होंने
विचारों की स्वतंत्रता की रक्षा एवं जबरन
धर्मांतरण के खिलाफ घोर संघर्ष किया।
सिख आज भी यदि तलवार उठाते हैं तो केवल देश के
लिए और अपने सर कटवा देते हैं मगर कभी भी देश का
सर नहीं कटने देते । सिख दुनिया में जहाँ कहीं भी
रहते हैं बड़ी ही शान्ति तथा अपने पड़ोसियों के
साथ मेल जोल के साथ रहते हैं, और वहाँ की सरकारें
उन्हें कभी तंग नहीं करती । सिख केवल 2% हैं फिर
भी कभी आजतक किसी सरकार के सामने
अल्पसंख्यक मान्यता या आरक्षण के लिए हाथ नहीं
फैलाया कि हमें सरकारी मदद में ये दो या वो दो,
भले ही दो रोटी कम खा लेते हैं मगर कभी भीख नहीं
माँगते।
ऐसा नहीं है कि सिखों के नेता नहीं होते, मगर आज
तक
कभी भी किसी सिख नेता के मुँह से ऐसी बात नहीं
सुनी कि जल्दी ही सिख हिंदुस्तान पर राज करेगा
या पन्द्रह मिनट के लिए पुलिस हटा लो फिर देखो
हम 100 करोड़ जनता को मार देंगे, या कभी भी
सिखों द्वारा किसी भी मजहब के देवी, देवताओं
को गाली देते नहीं सुना।
इनके गुरूद्वारों के गेट हर मजहब के लोगों के लिए
हमेशा खुले रहते हैं। आंकड़ों के मुताबिक देश में 60
हजार से भी अधिक गुरुद्वारे 24 घंटे करीब 60 लाख
लोगों को लंगर खिलाते हैं। वो भी किसी किसी
भेदभाव के और बिना किसी का जाति-धर्म बिना
पूछे। यहाँ तक कि हिन्दू तीर्थस्थानों और मुस्लिम
क्षेत्र के गुरूद्वारों में भी इनका लंगर और सेवाकार्य
चलता रहता है। कुछ दिनों पहले सहारनपुर दंगों में
जिस गुरूद्वारे को जलाया गया था वहाँ भी लंगर
चलते थे और लोगों को मुफ्त दवाईयाँ बाँटी जाती
थी।
सिखों में आपसी लगाव काफी है। न सिर्फ जश्न के
मौकों पर बल्कि तकलीफ में भी सदा एक दूसरे के
साथ रहते हैं। अपनी अरदास में भी ये लोग दूसरों के
लिए पहले 'सरबत दा भला' मांगते हैं और आखिर में
अपने लिए कुछ मांगते हैं।
जरूरत पड़ी तो 12 फिर बजेंगे!
अक्सर 12 बजे को लेकर सिखों का व्यंग्य किया
जाता है। 1737 से 1767 के बीच नादिरशाह और
अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरे मारकाट के बाद
सोना-चांदी और कीमती सामान के साथ-साथ सुंदर
लड़कियों और स्त्रियों को भी लूटकर साथ ले जाते
थे। सिखों ने उन लुटेरों से स्त्रियों को बचाने की
ठानी और संख्या में कम होने के कारण छोटे-छोटे दल
बना कर 'रात 12 बजे' हमले की योजना की। अपने
दल को हमले के लिए चौकन्ना करने के लिए सिखों ने
एक कोड बनाया था '12 बज गए'। सिखों के लिए यह
वाक्य आज भी वीरता एवं गर्व का प्रतीक है।
यही नहीं कांग्रेसियों ने इंदिरा गाँधी की हत्या के
बाद उनके अंगरक्षकों संत सिंह और बेअंत सिंह के नाम
संता-बंता के नाम पर पूरे सिख समुदाय का मजाक
उड़ाने की कुत्सित परम्परा शुरू की। परन्तु देश और धर्म
के रक्षक बलिदानी सिखों का उपहास करने वालों
को शर्म आनी चाहिए। सिख राष्ट्र के शुभचिंतक
और हमारे सच्चे भाई हैं।
जान को हथेली पर रखना और हर काम में अव्वल आने
के लिए जोर लगाना, ऐसी इमेज है सिखों की।
जाहिर है
तभी आर्मी से लेकर ड्राइवरी तक, कोई भी काम
जिसमें
ज्यादा रिस्क हो, उसमें सबसे आगे आपको लंबा-
चौड़ा गबरू जवान, मूछों को तांव देता दिखाई दे
जाएगा। पॉजिटिव सोच इनका 'एक्स फैक्टर' है।
किसी भी काम को छोटा न समझने और विरासत में
मिली मेहनत की आदत की बदौलत केवल देश के हर
प्रान्त में ही नहीं बल्कि दुनियाँ के लगभग हर देश में
ऊंचाइयों तक पहुंची है यह कौम।
थामा देश की रक्षा का जिम्मा
यह बहादुर कौम देश की सुरक्षा में हमेशा आगे रही।
पूरे भारत की आबादी का केवल 2% होने के बावजूद
भी देश की सेना में 10% योगदान इन्हीं का है।
मुगलों के जमाने से लेकर स्वतंत्रता संग्राम, विश्व
युद्धों से लेकर चीन और भारत-पाकिस्तान युद्धों में
सिखों की बहादुरी को आज भी हम नहीं भूले हैं।
पिछले दोनों विश्व युद्धों में उन्होंने फ़्रांस, इटली,
मलयेशिया, अफ्रीका,बर्मा आदि (सभी यूरोपीय,
देशों, मध्य पूर्व तथा दक्षिण पूर्व) देशों में अपनी
शूरवीरता के परचम लहराए थे।
आज भी उनकी बेमिसाल बहादुरी को चिरंजीवी
बनाने के लिए लगभग सभी देशों में उनकी याद में
स्मारक बनाये गये हैं।
इन युद्धों में भी एक लाख से उपर सिख सैनिकों ने
अपनी आहुतियाँ दी थीं । आज़ाद हिंद फौज में भी
उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस की कुल संख्या
के लगभग ६०% सिख सैनिक ही थे।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि फ्रांस समेत
यूरोप के कई देशों में सिखों की बहादुरी की ऐसी
अनेकों दास्तां स्कूली बच्चों को पढ़ाई जाती हैं।
'यूनेस्को' की ओर से छापी गई किताब 'स्टोरीज़
ऑफ ब्रेवरी' में ये सब फैक्ट्स आपको मिल जाएंगे।
धर्म और राष्ट्र के रक्षक सिख कौम को पूरे भारत
का सलाम । गर्व है हमें अपने इन भाईयों पर।
जो बोले सो निहाल..


 लोहड़ी सिख परिवारों के लिए महत्वपूर्ण
त्योहार हैं। लोहड़ी मकर संक्रांति के एक दिन
पहले मनाया जाता है। हर साल 13 जनवरी को
पंजाबी परिवारों में विशेष उत्साह होता है। यह
उत्साह तब और बढ़ जाता है यदि घर में बहू या फिर बच्चे
के जन्म की पहली लोहड़ी हो।

सिख समुदाय का इतिहास क्या आप जानते है।
1. जनगणना के आधार पर विश्व में सिखों की संख्या
कितनी है
2 करोड़ 70 लाख (लगभग)
2. किस सदी में सिख धर्म की
नीव रखी गई
15 वीं सदी में
3. सिखों के प्रथम गुरू साहिब का नाम क्या था
श्री गुरू नानक देव जी
4. सिखों के नाम के पीछे लगने वाले शब्द क्या क्या
हैं
सिंह (पुरूष) तथा कौर (स्त्री)
5. सिख धर्म में पुरूषों के नाम के पीछे लगने वाले
सिंह शब्द का क्या अर्थ है
शेर
6. सिख धर्म में स्त्रियों के नाम के पीछे लगने वाले
कौर शब्द का क्या अर्थ है
राजकुमारी
7. किन पाँच नियमों को निभाने का सिख धर्म के अनुयायियों को
आदेश है
सिख धर्म के अनुयायियों को बिना कटे केश, कड़ा,
कंघी, कच्छेरा तथा कृपाण रखने का हुक्म है
8. दुनिया की कुल जनसंख्या में सिखों का कितने
प्रतिशत है
0.39%
9. सबसे ज्यादा सिख किस देश में बसते हैं
भारत (दक्षिणी एशिया)
10. भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री का क्या नाम
है तथा वे कितने वर्ष इस पद पर आसिन रहे
डॉ. मनमोहन सिंह (10 वर्ष तक)
11. भारत के पहले सिख राष्ट्रपति बनने का गौरव किन्हे प्राप्त
है
ज्ञानी जैल सिंह
12. भारत के पहले सिख विदेश मंत्री कौन थे
सरदार स्वर्ण सिंह
13. भारतीय वायु सेना के इतिहास में सबसे उच्च पद
पर अपनी सेवा देनी वाला सिख कौन था
वायु सेना मार्शल अर्जन सिंह
14. प्रथम भारतीय-कैनेडियन बिलियनेयर सिख कौन
है (1 बिलियन = 10 करोड़)
बोब सिंह ढिलों
15. फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर रनर का क्या नाम है जिन
पर बॉलीवुड फिल्म भी बनी
थी
मिल्खा सिंह
16. भारत की क्रिकेट के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध
सिख कौन हैं
हरभजन सिंह (ऑफ स्पीन बॉलर)
17. पहले विश्व युद्ध के समय इंडियन आर्मी
(ब्रिटिश) में सिखों का कितने प्रतिशत था
20 प्रतिशत
18. पहली बार यू. एस. ए. में सिख गुरूद्वारा का
निर्माण कब किया गया था
1912 में (कैलीफोर्निया)

19. खालसा पंथ की स्थापना किस सिख गुरू ने
की थी तथा कब की
थी
खालसा पंथ की स्थापना सिखों के दसवें गुरू
श्री गुरू गोबिंद सिनंह जी ने 30 मार्च
1699 को केशगढ़, आनंदपुर साहिब में की
थी
20. किस मुगल शासक ने सिखों के पाचवें गुरू श्री गुरू
अर्जन देव जी को मारने का घिनोना काम किया था
जहाँगीर (असली नाम नुर-उद-
द्दीन मोहम्मद सलीम, जो कि अकबर
का बेटा था)
21. खालसा पंथ की स्थापना के पहले
ही दिन कितने अनुयायियों ने सिंह (पुरूष) तथा कौर
(स्त्री) नाम को धारण किया था
20 हज़ार
22. अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर का निर्माण कब सम्पन्न
हुआ था
अगस्त 1604
23. स्वर्ण मंदिर की नींव किस सिख गुरू
ने रखी थी
सिखों के पांचवे गुरू अर्जन देव जी ने
24. अमृतसर शहर की नींव किस सिख
गुरू ने रखी थी
सिखों के चौथे गुरू राम दास जी ने
25. स्वर्ण मंदिर का पुन: निर्माण जो कि आज भी
मौजूद है किस सिख ने करवाया था
सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया ने
26. रोज़ाना आधार पर लगभग कितने लोग स्वर्ण मदिर के दर्शन
करने आते हैं
लगभग एक लाख (जो कि सात अजूबों में सम्मिलित ताजमहल से
कहीं ज्यादा हैं)
27. स्वर्ण मंदिर के प्रथम ग्रंथी कौन थे
बाबा बुढा जी
28. शेर-ए-पंजाब के नाम से किसे जाना जाता है
महाराजा रणजीत सिंह
29. महाराजा रणजीत सिंह की
समाधी कहाँ पर है
लाहौर, पाकिस्तान
30. 1660 से 1780 के मध्य की सिख सेना को
किस नाम से जाना जाता था
दल खालसा
31. पंजाब में 1707 से 1799 के मध्य बनने वाले छोटे छोटे दल
क्या कहलाते थे
मिस्ल
32. सुल्तान-उल-कोम के नाम से किसे जाना जाता है
सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया
33. जस्सा सिंह अहलूवालिया ने पंजाब के किस राज्य
की स्थापना की थी
कपूरथला
34. इरान का बादशाह नादिर शाह जो कि करनाल की
लड़ाई में मुगलों को हराकर 800 हिंदु तथा 500 मुस्लिम महिलाओं
को अपने देश ले जा रहा था उस पर किसने हमला कर
सभी महिलाओं को सुरक्षित छुडवाया था
सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया तथा अन्य सिख सनगठनों ने एक
साथ मिलकर
35. करनाल की लड़ाई किस किस के बीच
तथा कब हुई थी
24 फरवरी 1739 को इरान के बादशाह नादिर शाह
तथा मुहम्मद शाह के बीच
36. सिख साम्राज्य जो कि महाराजा रणजीत सिंह
द्वारा सभी मिस्लों को संगठित कर बनाया गया था किन
चार देशो की जमीन पर काबिज़ था
भारत, पाकिस्तान, चीन तथा अफगानिस्तान
37. सिख साम्राज्य की प्रथम महिला शासक कौन
थी
चांद कौर
38. सिख साम्राज्य का आखिरी शासक कौन था
जवाहर सिंह औलख
39. सिख साम्राज्य कितने प्रांत में बांटा गया था
चार प्रांतों में
40. सिख साम्राज्य के चार प्रांत कौन कौन से थे
लहौर, मुलतान, पेशावर तथा कशमी
41. सिख धर्म के किस प्रयास से खुश होकर अकबर ने
अमृतसर की ज़मीन सिखों को
दी थी
लंगर की सेवा से (अकबर सिख धर्म की
लंगर सेवा का बड़ा प्रशंसक था इसलिए जब इस के बारे में उसे पता
चला तो उस ने लंगर के लिए ज़मीन दान
की थी इसी के साथ अकबर
के संबध सिखों के साथ बेहतर हो गए लेकिन उसका बेटा
जहाँगीर (जो कि मुगल साम्राज्य का राजा बना) सिखों
की ढृढ राजनीतिक व्यवस्था के चलते
खौफ में था
42. सिख साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण क्या था
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु
(1839) तथा सत्ता की कमजोरी का लाभ
उठाने वाली ईस्ट इंडिया ब्रिटिश कंपनी
43. एंग्लो-सिख युद्ध किस किस के बीच लड़ा गया
तथा विजयी कौन हुआ
एंग्लो-सिख युद्ध सिख साम्राज्य तथा ईस्ट इंडिया ब्रिटिश
कंपनी के बीच लड़ा गया तथा इसमें सिखों
की हार हुई (ये युद्ध महाराजा रणजीत
सिंह की मृत्यु के कुछ ही बर्ष बाद
1845 में लड़ा गया था)
44. कश्मीर पर ईस्ट इंडिया ब्रिटिश
कंपनी का अधिकार किस युद्ध के बाद हुआ
द्वित्य एंग्लो-सिख युद्ध
45. पंजाबी भाषा की लिपि क्या है
गुरमुखी
46. गुरमुखी लिपि सिखों के किस गुरू द्वारा
रची गई थी
गुरू अंगद देव जी
47. औरंगजेब ने किस सिख गुरू की हत्या करवाई
थी
गुरू तेग बहादुर जी
48. खालसा पंथ का पिता किसे माना जाता है
गुरू गोबिंद सिंह जी
49. खालसा पंथ की माता किसे माना जाता है
माता साहिब कौर जी
50. सिख अभिवादन क्या है
वाहेगुरू जी का खालसा, वाहेगुरू जी
की फतेह
51. सिख जयकारा क्या है
जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल
52. सिखों के पाँच तख्त कौन कौन से हैं
(i). अकाल तख्त, अमृतसर
(ii). पटना साहिब
(iii). केशगढ़ साहिब, आनंदपुर
(iv). हज़ुर साहिब, नादेड़
(v). दमदमा साहिब, तलवंडी साबो (भंटिंडा)
53. हिंद की चादर कह कर किस सिख गुरू को
सम्बोधित किया जाता है
गुरू तेग बहादुर जी
54. शादी को सिख सभ्यता में किस नाम से जाना जाता
है
आनंद कारज
55. सिखों मे लिए जाने वाले फेरों को क्या कहा जाता है तथा
उनकी संख्या कितनी होती
है
सिखों द्वारा फेरो की रस्म को “लांवा” कहा जाता है तथा
इनकी संख्या (चार) होती है जबकि
हिन्दु धर्म में सात फेरों की रस्म है
56. जलियांवाला बाग हत्याकांड में जो लोग मारे गए थे उनमे सिखों
की संख्या क्या थी
309 सिख
57. एस. जी. पी. सी का
पूरा नाम क्या है तथा ये क्या काम करती है
शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी (यह
पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा यू. टी.
चंडीगढ़ के गुरूद्वारा प्रबंधन का कार्य
करती है)
58. शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी
कब गठित हुई थी
20 दिसम्बर 1920
59. शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के
पहले प्रेजिडेंट कौन थे
सरदार सुंदर सिंह मजीथिया
60. शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी
की पहली महिला प्रेजिडेंट कौन
बनी
बीबी जगीर कौर
61. सिख कलैंडर को किस नाम से जाना जाता है
नानकशाही कलैंडर
62. नानकशाही कलैंडर का पहला साल कौन सा है
1469 (प्रथम सिख गुरू नानक देव जी
की जन्म तारिख)
63. नानकशाही कलैंडर के अनुसार एक वर्ष
की अवधि क्या है
यह पश्चिमी कलैंडर के समान ही 365
दिन, 5 घंटे, 48 मिनट तथा 45 सेकेंड का होती है
64. नानकशाही कलैंडर में लीप वर्ष का
एक ज्यादा दिन किस महिने में जोड़ा जाता है
फागुन के महिने में
65. नानकशाही कलैंडर में नया साल कब मनाया जाता
है
14 मार्च को
66. नानक शाही कलैंडर के महिने कौन कौन से हैं
चेत (14 मार्च से शुरू)
वैसाख (14 अप्रैल से शुरू)
जेठ (15 मई से शुरू)
हाड़ (15 जून से शुरू)
सावण (16 जुलाई से शुरू)
भादों (16 अगस्त से शुरू)
असु (15 सितम्बर से शुरू)
कत्तक (15 अक्तूबर से शुरू)
मघर (14 नवम्बर से शुरू)
पोह (14 दिसम्बर से शुरू)
माघ (13 जनवरी से शुरू)
फगुण (12 फरवरी से शुरू)
67. नानकशाही कलैंडर को बनाने का श्रेय किसे जाता
है
कैनेडियन सिख पाल सिंह परेवाल को
68. शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने
नानकशाही कलैंडर को कब मान्य किया
14 अप्रैल 2003 को (नानकशाही कलैंडर का
अनुसरण विश्व के 90 प्रतिशत से ज्यादा गुरूद्वारा साहिब में किया
जाता है)
69. दिल्ली के सभी गुरूद्वारा साहिब के
संचालन पर किस का नियंत्रण है
दिल्ली सिख गुरूद्वारा मैनेजमेंट कमेटी
(डी. एस. जी. एम. सी.)
70. भारत की आज़ादी से पूर्व किस
मूवमेंट के बाद गुरूद्वारा साहिब का संचालन एस. जी.
पी. सी. के हाथों में आया
गुरूद्वारा रिफोर्म मूवमेंट
71. गुरूद्वारा रिफोर्म मूवमेंट कब से कब तक चली
थी
1920 से 1925 तक (इस मूवमेंट में 400 से से ज्यादा लोग मारे
गए तथा 2000 से ज्यादा लोग घायल हुए थे नाजायज कब्जा
हटवाने के लिए ये मूवमेंट चालाई गई थी)
72. एस. जी. पी. सी. से
पहले गुरूद्वारा साहिब की देखरेख एंव संचालन प
किस का कब्जा था
उदासी महंतों का
73. अंग्रेजों ने सिख गुरूद्वारा एक्ट कब पारित किया था
1925 में (1921 में ब्रिटिश सरकार ने अकाली
मूवमेंट को महात्मा गांधी के अवज्ञा आंदोलन से
ज्यादा गम्भीर माना था क्योंकि इस में
ग्रमीण क्षत्रों का दबदबा ज्यादा था अंग्रेजों का मानना
था कि ग्रामीण क्षेत्रों की युवा शक्ति
उनकी सरकार के लिए खतरा पैदा कर
सकती है)
74. सिख धर्म में दिवाली को किस रूप में मनाया जाता
है
बंदी छोड़ दिवस (इस दिन सिखों के छठे गुरू हरगोबिंद
जी 52 हिंदु राजाओं के साथ मुगल बादशाह
जहाँगीर की कैद से आज़ाद हुए थे)

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